Tuesday, April 12, 2011

कर्म और भाग्य -2

                                                  !! ॐ श्री गणेशाय नमः !! 
                                        
                       
                     कर्म और भाग्य के विषय में अपने इस लेख कि शुरुआत में,मैं कहना चाहूँगा कि,हमारे पूर्वज विद्वान मनीषियों ने अपने द्वारा रचित शास्त्रों और विभिन्न प्रकार के ग्रंथों में इस विषय पर अपने बहुत ही स्पष्ट विचारों को अत्यंत ही गूढ़ भाषा में और अनेक टुकड़ो में लिख रखा है I जिसे समझना इतना सहज नहीं है I लेकिन मुझे सदैव से ही ऐसा प्रतीत होता रहा है कि अवश्य ही इन शास्त्रों में आपस में कोई सम्बन्ध है I अलग - अलग प्रतीत होने वाले ये ग्रन्थ एक दुसरे से पूर्ण रूप से अंतर्ग्रथित हैं I और इन्हीं ग्रंथों और इनके संबंधों का अध्ययन करते करते ही मुझे कर्म और भाग्य रुपी इस गूढ़ विषय के बारे में अत्यंत ही स्पष्ट विचार प्राप्त हुए हैं .  ये सब मुझ पर श्री गणेश जी की असीम अनुकम्पा से संभव हुआ है , और मैं भी अपने पूर्वजों का ही अनुसरण करते हुए इस विषय का ज्ञान आप सभी विद्वतजनों की साथ बाँटने को तत्पर हूँ और आने वाले समय में धीरे -धीरे इस माध्यम से अपने सभी संकलित विचारों को भी आपके समक्ष प्रस्तुत करूँगा I

      फिलहाल कर्म और भाग्य कि चर्चा को आगे बढ़ाते हुए बात करते हैं  कि ,कर्म और भाग्य के मर्म को समझने के लिए हमें महर्षि वेदव्यास,गोस्वामी तुलसीदास और अनेकानेक विद्वतजनों कि लेखनी से उद्धृत हुए विषयों का सहारा लेना पड़ेगा I

इसी क्रम मैं शुरुआत करता हूँ वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत कथा से :- जो इस विषय कि आत्मा के समान है I

     महाभारत के भीष्म पर्व में भीष्म - युधिष्ठिर संवाद और भीष्म - कृष्ण संवाद में इस विषय की पूर्णतया नींव रख दी गई है इ जहां से ईश्वर कर्म और भाग्य की गुत्थी को सुलझाने के लिए एक डोर प्रदान करते हैं I इसलिए इस विषय को आत्मसात करने के लिए इन संवादों कि गूँज अंतर्मन में होना अत्यंत आवश्यक है I

                      भीष्म - युधिष्ठिर संवाद

दिनभर तक चले भीषण युद्ध कि समाप्ति के पश्चात शाम के समय युधिष्ठिर अपने बंधु - बांधवों के साथ शर शैय्या पर उत्तरायण की प्रतीक्षा कर कर रहे कौरव-कुल-शिरोमणि भीष्मपितामह का कुशलक्षेम पूछने के लिए उनके पास जाते हैं I वहां पहुँचने पर प्रणाम कर युधिष्ठिर पितामह के चरणों के पास खड़े हो जाते हैं I कुछ देर मौन के पश्चात :-

युधिष्ठिर :- पितामह ,इस संसार में ऐसा क्यों होता है , कि शुभ और पुण्य कर्म करने वालों को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है , जबकि पाप कर्मों में लिप्त और जीवन भर भोग - विलासमय जीवन व्यतीत करने वाले कभी भी समस्याओं के भंवर में फंसते हुए नहीं देखे जाते , ऐसा क्यों पितामह ? ऐसा क्यों ?

पितामह :- पुत्र मैं जानता हूँ , कि तुमने आज मुझसे यह प्रश्न कौरवों और पांडवों के सम्बन्ध में पूछा है I अतः मेरी यह बात गौर से सुनो कि मनुष्य को अपने जीवन - काल में केवल अपने कर्मों का फल ही नहीं भोगना पड़ता अपितु स्वयं के साथ - साथ उसे अपने पूर्वजों के कर्मों के फलों का लेखा जोखा भी संभालना पड़ता है I इसलिए कई बार व्यक्तियों को जीवन भर धर्मं के मार्ग पर अडिग रहते हुए भी सुख का एक भी क्षण प्राप्त नहीं होता है और कई व्यक्ति ऐसे होते है ,जो जीवन भर अधर्म में लिप्त रहते हुए भी सुख भोग करते हैं I

                           भीष्म - कृष्ण संवाद

इसी प्रकार एक बार  शर - शैय्या पर लेटे गंगापुत्र भीष्म से मिलने के लिए श्रीकृष्ण जाते हैं I वहां उनके बीच जो वार्तालाप होता है ..........
गंगापुत्र :- प्रणाम वासुदेव ! आज मेरे जीवन को स्वयं से और कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं रह गयी है ,अन्तकाल में जिसे साक्षात् स्वयं श्री हरि का ही संयोग प्राप्त हो जाये उसे अपने जीवन से और क्या प्राप्त करना बाकी रह जाएगा ! परन्तु हे देवकीनंदन एक बात है ,जो मुझे आज तक कचोट रही है ,आज्ञा है तो पूछूँ वासुदेव

कृष्ण :- अवश्य गंगापुत्र Iआप जैसे युगपुरुष को भी यदि कोई बात कचोट रही है , तो आपका संशय दूर करना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी I

गंगापुत्र :- हे वासुदेव मुझे अपने पिछले सौ जन्म तक का सब कुछ स्पष्ट रूप से याद है और वहाँ तक मुझे एक भी ऐसा कारन प्रतीत नहीं होता जिसके कारण मुझे आज इस शर-शैय्या पर विश्राम करना पड़ रहा है I

कृष्ण :- हे गंगापुत्र जहां तक तुम्हें याद है उससे एक जन्म पहले तुम एक बार किसी जंगल से गुजर रहे थे ,रास्ते में तुम्हारे पैर पर एक कीट आकर गिर गया और तुमने अपने पैर को झटक दिया जिसके कारण वह कीट पास की एक झाड़ी में जाकर गिर गया और काँटों में फंस कर
तड़पते हुए उसके प्राण निकल गए ! शेष आप स्वयं ज्ञानी हैं पितामह  यदि इन दो वार्तालापों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है की मनुष्य के जीवन पर अपने पिछले जन्म के कर्मों के साथ - साथ अपने  पूर्वजों के कर्म को भी यथा संभव भोग करना पड़ता है I

साधारण जुबान  में हम इनका प्रयोग भी करते हैं,लेकिन इन पर कभी ध्यान नहीं दे पाते हैं I

उदहारण के तौर पर मारवाड़ी भाषा के बोलने वालों लोगों जबान से अक्सर ये बातें सुनी जा सकती है ....
*-*   देखो फलां व्यक्ति आज अपने बुजुर्गों के शुभ कर्मो का फल भोग रहा है, इसके माँ बाप बहुत सेवा पूजा करने वाले थे ,जिसके कारण ये आज

अपनी जिंदगी में इतना सफल हो रहा है I

*-*   खोटे किये हैं पिछले जनम में तो अब खोटे भुगत !

यहाँ तक चिंतन व मनन करें शेष अगले लेख में

आज का टिप :-शनि ग्रह ह्रदय मैं संतोष और दया का करक है I जब  शनि की साढ़े साती , ढैय्या या दशा चल रही हो तो ह्रदय में संतोष रखना चाहिए , होठों पर मिठास रखनी चाहिए ,दूसरों के प्रति मन में बुरे विचार नहीं रखने चाहिए और मौन रखने का प्रयास करना चाहिए
सभी से प्रेम से बात करनी चाहिए फिर देखिये  कैसे शनि  ग्रह आपको सबसे अच्छा  ग्रह लगने लगेगा !

शेष शुभम !
जय गणेश जय गणेश
जिस पर हो तेरी कृपा दृष्टि
उसके लिए इस ब्रह्माण्ड में
क्या बचा है शेष
जय गणेश जय जय गणेश

                        










































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